आज मैं आपको एक विश्व-प्रसिद्ध दुम की कहानी सुनाने जा रहा हूँ। यह कहानी किसी ऐरे-गैरे व्यक्ति की नहीं है। यह कहानी दुमदार जी की है।
दुमदार जी का असली नाम कोई नहीं जानता। बचपन से ही दुमदार जी विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। चमचागिरी, चापलूसी, चाटुकारिता और मक्खन लगाने में उनका कोई सानी नहीं थी। हैरानी की बात यह है कि उनके पिता बेहद ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ स्कूल-मास्टर थे जो दुम हिलाने को पाप समझते थे। ऐसे परिवार में पैदा हो कर भी दुमदार जी ने हिम्मत नहीं हारी। दुम हिलाने की कला उन्हें विरासत में नहीं मिली थी। यह कला उनकी 'जीन्स' में नहीं थी। उनकी आनुवंशिकी इससे वंचित थी। लेकिन उन्होंने इस अड़चन को अपनी सफलता की राह में रुकावट नहीं बनने दिया। अपने परिवेश और समाज से निरंतर शिक्षा ग्रहण करते हुए अंत में वे इतने बड़े दुमबाज बन गए कि लोगों ने उनका नाम ही दुमदार जी रख दिया। इस लिहाज से दुमबाजी में वे एक 'सेल्फ-मेड' व्यक्ति थे।
दुमदार जी प्रागैतिहासिक काल में पूर्वजों के पास पाई जाने वाली विलुप्त पूँछ हिलाने में माहिर थे। दुम हिलाने को फूहड़ सड़क-छापपने के टुच्चे स्तर से उठा कर उसे ललित-कला के स्तर तक पहुँचाने में श्री दुमदार जी का अद्भुत योगदान भुलाया नहीं जा सकता। अखिल भारतीय दुमदार महासभा के पहले अधिवेशन में उनका ऐतिहासिक भाषण मील का पत्थर साबित हुआ। 'दुनिया के दुमबाजो, एक हो जाओ' और 'दुम नहीं तो दम नहीं' जैसी उनकी उक्तियाँ लोकप्रिय उद्धरण बन गए। 'सफलतापूर्वक दुम कैसे हिलाएँ' शीर्षक वाली उनकी पुस्तक इतनी लोकप्रिय हुई कि उसे 'नेशनल बेस्टसेलर' माना गया। इस पुस्तक के कई संस्करण निकले और दर्जनों भाषाओं में अनूदित हो कर इसकी करोड़ों प्रतियाँ बिकीं।
लेकिन यह तो बाद की बात है। इसकी शुरुआत कैसे हुई वह भी किसी चमत्कार से कम नहीं था। एक रात दुमदार जी सोने गए। सुबह उठने पर उन्होंने पाया कि उनकी दुम निकल आई है। यह खबर दुमबाजों के बीच हिलती पूँछ-सी फैली। इसे कुदरत का करिश्मा और भगवान का वरदान माना गया। इस महान दुम के दर्शन के लिए अपार जन-सैलाब उमड़ पड़ा। लोगों को आपस में यह कहते हुए सुना गया - "जरूर दुमदार जी ने पूर्व-जन्म में दुमबाजी के अच्छे कर्म किए होंगे। इसीलिए भगवान दुमश्री महाराज ने उन्हें यह फल दिया है।" इस तरह देखते-ही-देखते दुमदार जी जग-प्रसिद्ध हो गए। शोहरत के साथ सम्मान और धन भी आया। दुमदार जी के दिन फिर गए।
इतिहास में कहीं ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता जब किसी आदमी की दुम निकल आई हो। लिहाजा अरबों में एक होने की वजह से दुमदार जी राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति-प्राप्त हो गए। उनकी महान दुम को 'राष्ट्रीय धरोहर' की संज्ञा दी गई। उन्हें अनेक सम्मानों से अलंकृत किया गया। लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री जी ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में दुमदार जी को 'दुम-विभूषण' की उपाधि देने की घोषणा की। विपक्ष के नेता भला क्यों पीछे रहते। उन्होंने भी अपनी पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन में दुमदार जी को 'दुम केसरी' की उपाधि से नवाजा। राष्ट्रपति जी ने भी राष्ट्रपति-भवन के प्रांगण में आयोजित एक भव्य समारोह में महामहिम दुमदार जी को देश के सर्वोच्च सम्मान 'दुम-रत्न' से अलंकृत किया। 'दुम-रत्न दुमदार जी, अमर रहें, अमर रहें' के नारों से आकाश गूँज उठा।
दुमदार जी की हिलती दुम की ख्याति दिन-दोगुनी, रात-चौगुनी बढ़ने लगी। सरकारी खर्चे पर करोड़ों रुपयों में उनकी दुम का बीमा कराया गया। उनकी दुम की सुरक्षा के लिए 'नेशनल सेक्येरिटी गार्ड' के जाँबाज कमांडो नियुक्त किए गए। यूनिसेफ ने उन्हें अपना 'गुडविल अंबैसेडर' बना लिया। दुमदार जी की दुम को दुनिया का आठवाँ आश्चर्य माना गया। विदेशी शासनाध्यक्षों के भारत आगमन पर दुमदार जी से मिलना उनके कार्यक्रम का अभिन्न भाग बन गया।
हालाँकि कुछ लोग जरूर दबी जुबान से दुमदार जी की दुम को 'ईश्वर का दंड' या 'दैवी प्रकोप' बताते थे। पर ऐसे लोग केवल मुट्ठी भर थे। इन्हें विदेशी एजेंट या राष्ट्र-द्रोही कहा जाता था।
एक बार दुमदार जी की महान दुम को चोट लग गई। पूरा राष्ट्र हतप्रभ रह गया। लोग स्तब्ध और शोकाकुल थे। इसे दुमदार जी के विरोधियों का षड्यंत्र माना गया। मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों और गिरिजा-घरों में दुमदार जी की दुम की सलामती के लिए विशेष प्रार्थना-सभाएँ आयोजित की गईं तथा नमाज पढ़ी गई। जगह-जगह हवन और यज्ञ किए गए। करोड़ों लोग दुमदार जी की दुम की सलामती का समाचार पाने के लिए रेडियो और टी.वी. से चौबीसों घंटे चिपके रहे। फेसबुक और ट्विटर पर लोगों ने इस के बारे में अपनी चिंता व्यक्त की। दुमदार जी की दुम की सलामती का समाचार आते ही जनता में हर्ष की लहर दौड़ गई। जगह-जगह मिठाइयाँ बाँटी गईं और पटाखे चलाए गए। उस रात हुई जबर्दस्त आतिशबाजी के आगे दीवाली की रात हुई आतिशबाजी भी फीकी लगने लगी।
'लिम्का-बुक' वालों ने तो पहले ही दुमदार जी की महान दुम का उल्लेख अपनी रेकॉर्ड-बुक में कर लिया था। अब 'गिनेस-बुक' वालों ने भी दुमदार जी का नाम अपनी रेकॉर्ड-बुक में दर्ज कर लिया।
देखते-ही-देखते दुमदार जी पूरे राष्ट्र के लिए आदर्श, अनुकरणीय, श्रद्धेय और प्रतिमान बन गए। पूरा राष्ट्र प्रागैतिहासिक काल में पूर्वजों के पास पाई जाने वाली विलुप्त पूँछें हिलाने लगा। जो दुम-हीन थे, वे मिसफिट थे। समाज में दुम हिलाना सफलता की कुंजी थी। बल्कि दुम हिलाना हमारा राष्ट्रीय खेल बन गया था। यदि दुम हिलाने की प्रतियोगिता को ओलंपिक खेलों में शामिल कर लिया जाता तो हम अवश्य ही इस प्रतियोगिता में स्वर्ण-पदक जीत जाते। उद्योग, व्यापार, शिक्षा-जगत और खेल-कूद - हर जगह दुमबाजी का बोलबाला था। जो व्यक्ति अपनी विलुप्त पूँछ हिलाना नहीं जानता था, वह सफलता की दौड़ में सबसे पिछड़ जाता था। यह दुम हिलाने वाले चमचों, चाटुकारों, चापलूसों और मक्खनबाजों का जमाना था। कोई बॉस की कृपा-दृष्टि पाने के लिए दुम हिला रहा था, कोई पदोन्नति पाने के लिए दुम हिला रहा था। कोई सहयोगियों की जड़ काटने के लिए दुम हिला रहा था, कोई सत्ता के शीर्ष पर बैठने के लिए दुम हिला रहा था। किसी भी तरह सफल होने और दूसरों से आगे बढ़ने के लिए लोग थूक कर चाट रहे थे, बाप को गधा और गधे को बाप बता रहे थे। हिलती हुई दुमें ऑफिस और व्यापार चला रही थीं। हिलती हुई दुमें देश की सरकार चला रही थीं। लोग इतना ज्यादा दुम हिला रहे थे कि भरी जवानी में शरीर से झुकते जा रहे थे।
एक जमाने में दुमदार जी मेरे सहयोगी थे। वे मेरे ही ऑफिस में काम करते थे। तब वे एक महान दुमबाज के रूप में जन-साधारण के मन में स्थापित नहीं हुए थे। अक्सर वे मेरे आगे-पीछे भी दुम हिलाते रहते थे क्योंकि उनके कई काम मेरे पास फँसे पड़े थे। बॉस के साथ मेरे संबंध अच्छे थे। इस कारण से भी दुमदार जी मेरी चापलूसी में जुटे रहते थे। समय बदला। बॉस का स्थानांतरण हो गया। नया बॉस आ गया। दुमदार जी के मुझसे सारे काम निकल गए। फिर तो मैं कौन और तू कौन! दुमदार जी ने मेरी ओर झाँकना भी बंद कर दिया। उनके इस व्यवहार से मुझे ठेस पहुँची। मैंने दो-एक लोगों से इसका जिक्र किया। इस पर वे हँस कर बोले - "आप भी बिल्कुल दुमहीन व्यक्ति हैं! अरे, दुमदार जी ने जो आपके साथ किया, इसी को तो दुमबाजी कहते हैं!"
तो मैं बता रहा था कि यह दुमबाजी का जमाना था। पूरा देश दुमदार जी की हिलती हुई महान दुम पर फिदा था। चमचे और चापलूस इतराए नहीं समा रहे थे, फूल कर कुप्पा हुए जा रहे थे। ऐसे माहौल में सरकार ने दुमदार जी की महान दुम के सम्मान में पाँच, दस और पंद्रह रुपयों के सुगंधित डाक-टिकट जारी किए जिनमें दुमदार जी की दुम को कई मुद्राओं में दिखाया गया। साथ ही दुमदार जी की महान दुम के सम्मान में विशेष सिक्के भी जारी किए गए जिन पर उनकी दुम की मनोहर छवि अंकित थी। रिजर्व बैंक के नोटों पर भी इस सम्मानित दुम के चित्र छपने लगे। दुमदार जी के चमचों ने उनके सम्मान में विश्व का सबसे विशाल मंदिर बनवाया जिसमें लाखों लोगों की मौजूदगी में दुमदार जी की एक दुम-कद प्रतिमा स्थापित की गई। वहाँ रोज सुबह-शाम पूजा-अर्चना और आरती होने लगी। देखते-ही-देखते उस मंदिर में करोड़ों रुपयों का चढ़ावा चढ़ने लगा। और कुछ ही समय में 'दुमदार - स्वामी मंदिर' में चढ़ने वाले चढ़ावे ने तिरुपति के मंदिर को भी पीछे छोड़ दिया।
दुमदार जी के शिष्यों ने उनकी महान दुम के सम्मान में 'दुम चालीसा' और 'दुम पचासा' लिख डाली। देश के तमाम कवि, कहानीकार, गीतकार, संगीतकार और चित्रकार दुमदार जी की महान दुम के महिमामंडन की नदी में स्नान करने लगे : "दुम ही हो माता, दुम ही पिता हो, / दुम ही हो बंधु, दुम ही सखा हो।" इस तरह पूरे राष्ट्र का माहौल दुम-मय हो गया। हर व्यक्ति दुम-छल्ला बन कर घूमने लगा।
दुमदार जी की महान दुम स्कूल-कॉलेजों के पाठ्य-क्रम का विषय बन गई। यहाँ दिमाग से नहीं, 'दुमाग' से शिक्षा दी जाने लगी। परीक्षाओं में दुमदार जी और उनकी महान दुम के बारे में प्रश्न पूछे जाने लगे :
- बताओ, दुमदार जी ने पहली बार दुम हिलाना कब सीखा?
- दुम हिलाने के क्या लाभ हैं? उदाहरण सहित बताओ।
- 'दुम चालीसा' और 'दुम पचासा' के लेखकों के नाम बताओ तथा इन पुस्तकों से कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करो।
- दुमदार जी एक 'सेल्फ-मेड' व्यक्ति हैं। इस पर टिप्पणी लिखो।
- दुमदार जी ने दुम हिलाने की कला को फूहड़ सड़क-छापपने के टुच्चे स्तर से उठा कर उसे ललित-कला के स्तर पर पहुँचाया। इस विषय पर एक लेख लिखो। वगैरह।
दुमदार जी की महान दुम के सम्मान में विश्वविद्यालयों में दुम-पीठों की स्थापना हो गई जहाँ छात्रों को इस विषय पर एम.फिल. और पी.एच.डी. की डिग्रियाँ प्रदान की जाने लगीं। कई विद्वानों ने इस विषय पर डी.लिट. की डिग्री भी अर्जित की। बी.ए. और एम.ए. के स्तर पर दुमदार जी की महान दुम को एक विषय के रूप में पढ़ने पर छात्र-छात्राओं को छात्रवृत्तियाँ दी जाने लगीं।
सरकार ने दुम हिलाने के अधिकार की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए 'राष्ट्रीय दुम आयोग' का गठन किया। इसे कानूनी दर्जा देने के लिए सरकार ने 'अखिल भारतीय दुम-हिलाओ अधिकार संरक्षण विधेयक' को संसद में प्रस्तुत किया जहाँ इसे दुम-मत से पारित भी कर दिया गया। सरकार ने संसद के संयुक्त अधिवेशन में देश में 'दुम-तंत्र' को सुदृढ़ करने का अपना संकल्प दोहराया। सभी दल इस बात पर एकमत थे।
कई वरिष्ठ फिल्म-निर्देशकों ने कई भाषाओं में दुमबाजी पर कई अच्छी फिल्में बनाईं जिन्हें बाद में 'दुम साहब मालके' सम्मान भी मिला। इन फिल्मों में दिखाई जाने वाली 'दुमगिरी' जनता में बेहद लोकप्रिय हुई। दुमबाजी के नए-नए हथकंडों को जन-जन तक पहुँचाने में इन फिल्मों का योगदान अभूतपूर्व है। इन में से कई फिल्मों में दुमदार जी ने बतौर नायक काम भी किया।
बाजार में दुमदार जी के दुम-मय व्यक्तित्व और उनकी महान दुम का महिमामंडन करने वाली पुस्तकों, सी.डी. और कैसेटों की बाढ़ आ गई। दुमों के सम्मान में आरती और भजन गाए जाने लगे :
"हम को दुम की शक्ति देना, दुम विजय करें,
दूसरों की दुम से पहले, अपनी दुम की जय करें...।"
एक समानांतर अर्थव्यवस्था अस्तित्व में आ गई जो पूरी तरह से दुमदारजी और उनकी महान दुम पर टिकी थी।
दुमदार जी की हिलती हुई महान दुम से प्रेरित हो कर देश के डॉक्टर और वैज्ञानिक गहन शोध और अनुसंधान में लग गए ताकि वे जान सकें कि मनुष्यों में दुमों को दोबारा कैसे उगाया जाए।
कई नए नारों का जन्म हो गया। जैसे - 'गर्व से कहो कि हम दुमदार हैं।' टी.वी. पर नए-नए तरह के विज्ञापन आने लगे। जैसे - 'भला उसकी हिलती हुई दुम आपकी हिलती हुई दुम से तेज कैसे? अपनी दुम को तेजी से हिलाने के लिए आज ही लीजिए - दुमदार चूरन।'
पूरे राष्ट्र का आलम यह हो गया कि लोगों को जिनसे अपना काम निकालना होता, वे उनके पजामों में नाड़ों की तरह प्रवेश कर जाते। लोग अपना काम निकालने के लिए 'डोर-मैट' बन जाते, दूसरों के पैरों की चप्पल बन जाते, जूते बन जाते। काम निकलते ही ऐसे दुमदार लोग दूसरों को ठेंगा दिखा देते। हर सभ्यता और संस्कृति किसी-न-किसी समय अपने उत्कर्ष पर होती है। इस समय दुमबाजी की सभ्यता अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई थी।
इस दुममय माहौल में दुमदार जी मुस्कुरा दें तो वसंत आ जाता था। दुमदार जी उदास होते थे तो पतझड़ आ जाता था। दुमदार जी खाँसते थे तो आँधी आ जाती थी। दुमदार जी छींकते थे तो भूचाल आ जाता था। दुमदार जी रोते थे तो नदियों में बाढ़ आ जाती थी। दुमदार जी हँसते थे तो मोर नाचने लगते थे। दुमदार जी नाराज होते थे तो बादल गरज उठते थे। दुमदार जी जिस ओर अपनी विश्व-प्रसिद्ध महान दुम हिलाते हुए चल देते थे, वहीं रास्ता बन जाता था। वे जिस ओर से अपनी दुम वापस खींच लेते थे, वह जगह बंजर हो जाती थी।
इस दुम-मय माहौल में सरकार ने नोबेल पुरस्कार देने वाली समिति से सिफारिश की कि हर व्यक्ति के लिए पूँछ हिलाने को लोकप्रिय, सरल और सुगम बनाने में श्री दुमदार जी के महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए उन्हें नोबेल पुरस्कार प्रदान किया जाए। इससे स्वयं नोबेल पुरस्कार का सम्मान बढ़ता।
दुमदार जी से प्रेरणा ले कर अब दुम हिलाना लघु और कुटीर उद्योग बनता जा रहा था। देश के घर-घर में अब दुम-क्रांति आ रही थी। इंसानों द्वारा अपनी अदृश्य दुम को हिलाने के नए-नए तरीके ईजाद किए जा रहे थे। अब यह बात साबित हो चुकी थी कि दुम हिलाने में देशवासी पूरी दुनिया में सबसे आगे थे। यह देश के लिए गौरव की बात थी।
एक बार दुमदार जी को शहर के सबसे प्रतिष्ठित स्कूल ने अपने वार्षिक समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया। वहाँ छात्र-छात्राएँ दुमदार जी की महान दुम को हसरत भरी निगाहों से देखते रहे। इस मौके पर दुमदार जी ने एक जोरदार भाषण दिया :
"प्यारे बच्चों, दुमबाजी की राह एक बेहद कठिन राह है। लेकिन यदि आप के भीतर चमचागिरी, चापलूसी और चाटुकारिता के बीज हैं तो आपको एक सफल मक्खनबाज बनने से कोई नहीं रोक सकता। आप मेरा उदाहरण लीजिए। मेरे पिता एक सीधे-सादे ईमानदार स्कूल-मास्टर थे। वे किसी के सामने पूँछ हिलाने को पाप समझते थे। मैं ऐसे बेकार खानदान में पैदा हुआ। किंतु मैंने विकट परिस्थितियों में भी हिम्मत नहीं हारी। मेरे भीतर दुमबाज बनने की ललक थी। मैं पूरी निष्ठा से पूँछ हिलाने के सम्मानित काम में लगा रहा। अपने पिता के बेकार मूल्यों के विरुद्ध जा कर मैंने दुमबाजी का मार्ग चुना। हालाँकि इस बात पर मेरे पिता मुझसे नाराज भी हुए। पर मैंने दुमबाजी जैसे महान कार्य के लिए पिता के साथ अपने संबंधों की परवाह भी नहीं की। मेरे पिता को 'आउटडेटेड आइडियलिज्म' के कीड़े ने काट रखा था। वे नहीं सुधर सकते थे। लिहाजा मैंने अपना मार्ग स्वयं बनाया। दिन-रात दुम हिला-हिला कर मैं आगे बढ़ा। आप भी मेरी तरह अवसरवादी बनिए। दुम हिलाइए और नाम कमाइए।"
बच्चे दुमदार जी की महान दुम से अभिभूत थे। यहाँ तक सब ठीक चल रहा था कि अचानक अनर्थ हो गया। जैसे ही दुमदार जी अपना भाषण दे कर स्कूल के सभागार से बाहर निकले, यह दुर्घटना हो गई। पलक झपकते ही यह कांड हो गया। कुछ लोग इसके लिए दुमदार जी के विरोधियों को जिम्मेदार ठहराते हैं। उनका कहना है कि दुमदार जी के विरोधियों ने ही दसवीं कक्षा के कुछ छात्रों को रुपए-पैसे दे कर उनसे यह काम करवाया। हालाँकि दुमदार जी के विरोधी इस बात का खंडन करते हैं। वे कहते हैं कि उनका इस घटना से कुछ भी लेना-देना नहीं है। सच्चाई चाहे जो भी हो, जो अनर्थ होना था, हो गया।
हुआ यह कि जैसे ही दुमदार जी समारोह खत्म होने के बाद सभागार से बाहर निकले, दसवीं कक्षा के कुछ छात्रों ने उनकी दुम पकड़ कर उसे जोर से खींच लिया। और वह महान विश्व-प्रसिद्ध दुम दुमदार जी के शरीर से निकल कर उन लड़कों के हाथों में आ गई। सब सन्न रह गए। हे राम! यह क्या हो गया? और तब जा कर यह राज खुला कि इतने वर्षों से दुमदार जी एक विशेष प्रकार की रबड़ की नकली दुम लगाए घूम रहे थे और पूरे विश्व को ठग रहे थे। फिर क्या था! पूरे देश में कोहराम मच गया। सदमे की अवस्था में कई लोगों ने आत्म-दाह कर लिया। कई जगह आगजनी और तोड़-फोड़ हुई। पूरा देश हिल गया। यह तो होना ही था। जब भी कोई बड़ी दुम गिरती है, धरती हिलती है।
दुमदार जी के विरोधियों ने कहा - "हमें तो पहले ही पता था कि दुमदार जी के शरीर पर दुम निकल आने का यह पूरा प्रकरण एक बहुत बड़ा 'फ्रॉड' है। इस पूरे शोर-शराबें में उस व्यक्ति की बात अनसुनी कर दी गई जिसने एक टी.वी. चैनल को दिए गए अपने इंटरव्यू में कहा था - "दुम तो सभी चाटुकारों, चापलूसों और चमचों की होती है, पर वह अदृश्य रहती है। दिखाई नहीं देती। दुमदार जी के शरीर पर दुम का साक्षात निकलना तो उस अदृश्य दुम का प्रकटीकरण मात्र था।"